गणतंत्र

पिछले एक महीने से 26जनवरी को गणतंत्र दिवस के रूप में मनाने की तैयारियां चल रही है।गाँव की प्राथमिक  स्कूलों के छात्रों से लेकर राजपथ पर सेना के जवानों तक की शिरकत एक सोये देश की रगों में तंत्रता,समानता आदि का जोश भरने के समारोह के रूप में देखा जाता है।सुबह-सुबह नन्हे-नन्हे बालकों के हाथों में तिरंगे के साथ जोश की लालिमा उम्मीद की किरणों के रूप में दिखेगी।राजपथ भारी-भरकम लवाजमे के साथ दुनियाभर में संचार-माध्यमों से इसकी नुमाइंदगी करेगा।किसी भी देश के लिए ऐसा संविधान लागू होना जो हर नागरिक का ख्याल गरिमा के साथ रखने की हिमायत करता हो,बहुत ही गौरवशाली होता है।जब देश का संविधान लागू हुआ तो देश के हर नागरिक ने खुशहाली का जो सपना देखा था वो चाहे आज भी पूरा नहीं हुआ हो लेकिन हर साल हम जश्न मनाकर आगे बढ़ने की फिर से शपथ लेकर खुद को तैयार कर लेते है। सदियों तक गुलामी की बेड़ियों में लिपटे रहे देश व् दासता की जंजीरों के दर्दनाक नागरिक जीवन को दरकिनार करके हमारे पूर्वजों ने जो हमें सौंपा है उसकी हिफाजत करने की जिम्मेवारी हमारे कन्धों पर है। आज हमारा देश जिस हालात में खड़ा है उसकी बेहतरी में अपना उच्चतम योगदान देकर हमे हमारी अगली पीढ़ी को सौंपना है। यह पर्व सिर्फ भविष्य के लिए ही तैयार नहीं करता बल्कि हर पिछले साल का आकलन भी करता है।हमे हमारी नाकामियों से सबक लेकर आगे सोचने को प्रेरित करता है। विविधता में एकता की धरोहर लिए देश में रोज हम   क्षेत्रवाद,जातिवाद,धर्मवाद आदि वैचारिक मतभेदों से सामना करते है और एक दूसरे की भावना का आदर करते है।हम विभिन्न रूपों में छोटे-छोटे हिस्सों में बंटे नजर आते है।कोई जाट,कोई सिक्ख,कोई गौरखा, कोई राजपूत,कोई मराठा,कोई पटेल, होता है तो कोई बुद्धिष्ट,कोई ब्राह्मण,कोई ईसाई, कोई मुसलमान,कोई पारसी नजर आता है।कोई तमिल तो कोई तेलुगु,कोई मराठी तो कोई गुजराती, कोई असमिया तो कोई कश्मीरी होता है लेकिन देश के रूप में हम सब हिंदुस्तानी है।
इस बात को विभिन्न मौकों पर हमने साबित भी किया है वो चाहे 1961 हो या 1965 व् 71 की लड़ाई हो या 1999 की कारगिल लड़ाई।एक देश के रूप में हम लड़े। देश के भीतर हम अपनी-अपनी वैचारिक व
सांस्कृतिक लड़ाइयां लड़ते आये है व् लड़ते रहेंगे क्योंकि यह हक़ हमने संविधान के तहत सबको उपलब्ध करवाया है।हर नागरिक,समुदाय,संगठन अपने हितों की लड़ाई संविधान के तहत लड़ने का अधिकार रखता है।ज्यों-ज्यों जब गण से तंत्र दूर होने लग जाता है त्यों-त्यों यह संघर्ष बढ़ता जाता है।तंत्र पर चंद लोग कब्ज़ा करके अपने हिसाब से उपयोग करने लगते है तब गण अर्थात जनता के अधिकारों की हत्या होने लगती है,उनके हकों को लूटा जाता है,जो दावा दबे-कुचले लोगों के उत्थान का संविधान में किया गया है वो धराशायी होने लगता है।जब बहुसंख्यक जनता वंचित होने लगती है निराशा का माहौल पैदा होने लगता है।जैसे जैसे जनता जागरूक होती है वैसे वैसे संवैधानिक तरीके से अपने हकों के लिए लड़ने को आगे आती है।आज जो संघर्ष व् विरोधाभाष हमारे सामने है उसके पीछे यही कारण है।तंत्र जब भी राह भटकने लगता है तब गण अर्थात जनता त्रस्त होकर आगे आती है।आज तंत्र पूरी तरह कठघरे में है।जनता की उम्मीदों पर खरा नहीं उतर रहा है तभी जनता सवाल खड़े कर रही है,आंदोलन कर रही है।जल्लीकट्टू का ही उदाहरण देख लो! रोज करोड़ों जानवर कत्लखानों में काट देते हो और करोड़ों तमिल लोगों की सांस्कृतिक आस्था में मरे दो बैलों को क्रूरता बताकर रोक लगाओगे तो जनता सड़कों पर उतरेगी ही।विविधता हमारी पहचान है जिसे खुद रोधाभाषों में खड़े तंत्र के बूते एक छड़ी से नहीं हांका जा सकता। आइये जिस वतन की मिट्टी को हमारे पूर्वजों ने खून-पसीने से सींचकर हमारे हाथों में सौंपा है उसको हमारे हाथों से और सुन्दर बनाकर हम हमारी आने वाली पुश्तों को सौंपने में अपना योगदान दे....
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