इसलिए ज्यादा परिवर्तन कम समय में होते नजर नहीं आएंगे

कल ओफ्सेम की रिपोर्ट पढ़ रहा था जो आर्थिक असमानता पर आंकड़े बता रही थी।पिछले साल के आंकड़ो से भयानक असमानता के आंकड़े इस बार जारी हुए है।पिछले साल की हूबहू मेरी पोस्ट.....

जब 1947 में देश आजाद हुआ तो देश की उम्मीदों के पर फैलने लगे,जनमानस के चेहरों पर 
मुस्कान तो दिल में अरमान जगने लगे।पंडित नेहरू भारी उम्मीदों के पहाड़ पर बैठे थे।उस समय विश्व दो गुटों में बंटा हुआ था।सामरिक तौर पर अमेरिका व् ब्रिटेन का गुट एक तरफ था तो दूसरी तरफ सोवियत संघ के नेतृत्व वाला।सामाजिक तौर पर अमेरिकी नेतृत्व वाला गुट पूंजीवाद की नुमाइंदगी कर रहा था तो सोवियत संघ समाजवाद की।नेहरू के सामने दो विकल्पथे जिसमे से एक विकल्प चुनना था लेकिन उन्होंने अपनी ूझबूझ से तीसरा गुट चुना अर्थात दोनों के बीच का रास्ता। किसी गुट में शामिल होने के बजाय दोनों के साथ हो जाना या यूँ कहूँ कि दोनों हाथों को एक साथ फैलाकर मदद लेना।देश में विकास की जो सोवियत मॉडल की पंचवर्षीय योजनाएं अपनाई गई उसको भी तोड़-मरोड़कर पूंजीवाद व् समाजवाद के बीच सामंजस्य बिठाते हुए चलाई गई।सरकार खुद व्यापारी के रूप में बाजार में उतरी।बड़े-बड़े उद्योगों की नींव रखी गई। शिक्षा,स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं को अपने हाथ में लेकर आगे बढ़ाया गया।उसका एक कारण यह भी था कि अंग्रेजों के लंबे शोषणकाल में स्थानीय निजी उद्योगों को पनपने का मौका नहीं मिल पाया। बजाज-टाटा-बिड़ला के अलावा कोई नाम सुनने को नहीं मिलता था। ऐसी अवस्था में सरकार की भूमिका निर्णायक हो जाती है।

शुरुआती समय में इसे बखूबी निभाया गया।देश ने तरक्की की राह पकड़ी लेकिन सदियों की गुलामी की 
मानसिकता वाले सिस्टम में हम बदलाव नहीं ला पाये।स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने वाली पीढ़ी के हटते ही देश का विकास भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ने लग गया।इसका मुख्य कारण यह था कि हम न तो देशभक्ति के साथ मानवीय मूल्यों की स्थापना कर पाये व् न ही अंग्रेजों द्वारा निर्मित कानूनों में बदलाव करके ऐसा कोई सिस्टम खड़ा कर पाये जो देश की तरक्की की राहों में आने वाले अवरोधों को दरकिनार कर सके। 

1975 में आपातकाल के रूप में सामने आई असफलता से लेकर 1990 के दशक की गठबंधन की सरकार के बिखराव के साथ नेहरू द्वारा स्थापित तीसरा मध्यमार्गी विकल्प डूब गया।1991 में पी वी नरसिम्हा राव की सरकार के समय देश दिवालिया होने की कगार पर पहुँच गया। तत्कालीन वित्तमंत्री डॉ मनमोहन सिंह के सामने पूंजीवाद के सामने घुटने टेकने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था। भारी दबाव के बीच वैश्विकरण,उदारीकरण,निजीकरण अर्थात LPG को अपनाना पड़ा।

पूंजीवाद ऐसी व्यवस्था है जहाँ पर सिर्फ और सिर्फ पूंजी को महत्व दिया जाता है।सरकार की भूमिका सीमित हो जाती है और सबकुछ बाजार के हवाले हो जाता है।सबकुछ दुनियां में बाजार तय करने लगता है। इसमें गरीबों का सामाजिक मूल्य घट जाता है।जहाँ गरीबी सिर्फ मजदुर उपलब्ध कराती है।जब तक हाड़-मांस का शरीर आपके साथ है मजदूरी करके जिन्दा रहो।जिस दिन शरीर ने जवाब दिया उस दिन इस दुनियां से रुखसत हो जाओ क्योंकि आपको बचाने की जिम्मेवारी पूंजीवाद में किसी के लिए भी तय नहीं होती।सरकार रूपी जो संस्था आपने चुनी है वो भी बाजार के आगे नतमस्तक है।धीरे-धीरे सामाजिक सरोकार का चोला उत्तर गया या बचा-खुचा भी उतर रहा है।

आप सोच रहे होंगे कि मुझे यह लिखने की अभी क्यों जरूरत आ पड़ी!कल दुनियां में गरीबी 
के बारे में सर्वे करने वाली संस्था ओफ़्सेम ने चोंकाने वाले आंकड़े जारी किये है।चोंकाने वाले सिर्फ समाजवादी विचारधारा या मानवीय मूल्यों को,जो अभी तक दिल के कोने में छुपाये बैठे है सिर्फ उनके लिए।

दुनियां के 50%गरीबों की संपदा के बराबर सम्पदा सिर्फ 62 लोगों के पास है जिसमे भारत के भी 4 लोग है। दुनियां के उद्योगपति मिलकर 20-23 जनवरी को स्विट्ज़रलैंड में एकत्रित होकर भावी रणनीति तय करेंगे।वो तय करेंगे कि आगे का व्यापार किस तरह बढ़ाये? 90%कंपनियां व् 95%उद्योगपति टैक्स बचाने के लिए भारी मात्रा में अपनी पूंजी कालेधन के रूप में टैक्स हैवन में जमा कर देते है।जो टैक्स गरीबों की मजदूरी का मेहनताना सरकारों को उनके सरोकारों वाली योजनाओं पर खर्च करना होता है वो कालेधन के रूप में सरकारों के लचीले नियमों या मिलीभगत के कारण विदेशों में चला जाता है।दुनियां के धन-कुबेर जिस जगह मिलेंगे उस जगह कालेधन का अथाह भंडार पड़ा होगा।कालेधन के खजाने पर बैठकर ये लोग तय करेंगे कि दुनियां में व्यापार का रुख या दिशा क्या हो?बड़ी विडम्बना होगी दुनियां के लिए। 

दो दिन पहले रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया के गवर्नर रघुराम राजन ने कहा है कि हम बड़े लुटेरों 
पर जब तक हाथ नहीं डाल पाते जब तक वो खुद ही कमजोर होकर कानून के कमजोर जाल में आत्महत्या न कर ले। बड़े लुटेरे सत्ता के लुटेरों के साथ मिलकर गरीबों का हक मार रहे है। देश के कानून हैसियत देखकर अपना काम करते है।जो लूटा है वो तो लूट चुका है लेकिन जब सत्ता दलालों के हाथों में चली जाती है तो टैक्स में भारी छूट देकर उनको खड़ा करने की कोशिशें होने लग जाती है।बाजार को चलाने की ठेकेदारी सत्ता के दलाल लेने लग जाते है जबकि पूंजीवाद में सबकुछ बाजार के हवाले होता है।सरकार सिर्फ नियामक की भूमिका में होती है।जिम्मेवारी गरीबों का कोई हक़ नहीं मार सके इसकी पहरेदारी करने की होती है।

जब रक्षक ही खुद भक्षक बन जाये तो किसी को कौन बचा सकता है।गरीब भुखमरी से मरे या 
इलाज के अभाव में अस्पताल की चौखट पर दम तोड़े!बचपन कुपोषण का शिकार हो या खेतों में किसान आत्महत्या करे किसी को क्या मतलब!जब पूरा सिस्टम ही अपनी रखवाली की भूमिका छोड़कर बाजार के साथ हो जाये तो सबको अपने अस्तित्व की लड़ाई खुद ही लड़नी पड़ेगी।अगर कुछ बदलाव होने की उम्मीद करे तो सिर्फ और सिर्फ क्रांति सम्पूर्ण क्रांति।सबकुछ फिर से व्यवस्थित करने की जरूरत के साथ।बाजार बहुत मजबूत है। पूंजीपति व् सत्तापति का गठजोड़ बड़ा निर्दयी हो चला है हर चाल का तोड़ निकाल ही लेता है इसलिए ज्यादा परिवर्तन कम समय में होते नजर नहीं आएंगे
https://sunilmoga.blogspot.com/

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