प्रथम विश्वयुद्ध से जुड़े रोचक तथ्‍य और जानकारियां

आज प्रथम विश्वयुद्ध हुए शताब्दी बीत चुकी है इस विश्व युद्ध में पूरे विश्व को कितना संकट झेलना पड़ा इसका अंदाजा आप इस पोस्ट में दिए गए आंकड़ों से लगा सकते हैं,100 साल/ पहले विश्व युद्ध में 11 लाख भारतीय सैनिक लड़े; 75 हजार शहीद हुए, इनमें 50% पंजाब प्रांत से थे!

संयुक्त पंजाब का मतलब वह पंजाब जिसमें आज के समय दिल्ली से लेकर आधे पाकिस्तान के अंदर तक और कश्मीर से लेकर राजस्थान तक ,उत्तर प्रदेश से सटा हुआ गंगा सतलुज के उत्तरी भारत का बहुत बड़ा मैदानी भाग संयुक्त पंजाब कहलाता था!
प्रथम विश्वयुद्ध में 11 लाख सैनिक भारत की तरफ से लड़ने के लिए गए थे जिनमें से 50% संयुक्त पंजाब के थे! इस संयुक्त पंजाब में आज के समय हरियाणा, हिमाचल, भारत का पंजाब और पाकिस्तान का पंजाब के रहने वाले लोग थे!

यह युद्ध क्यों हुआ इसका कारण यह बताया जाता है 28 जून 1914 को ऑस्ट्रिया-हंगरी साम्राज्य के उत्तराधिकारी आर्क ड्यूक फ्रांज फार्डिनैंड अपनी पत्नी सोफी के साथ बोस्निया में साराएवो के दौरे पर थे। वहां दोनों की सर्ब राष्ट्रवादी गैवरिलो प्रिंस की हत्या कर दी। इसके बाद 28 जुलाई को ऑस्ट्रिया-हंगरी ने सर्बिया के खिलाफ युद्ध का ऐलान कर दिया। एक अगस्त को जर्मनी ने रूस और दो दिन बाद
फ्रांस के साथ भी युद्ध शुरू कर दिया।

तुर्की में ऑटोमन साम्राज्य के खिलाफ सिख सैनिक गुरु ग्रंथ साहब को साथ लेकर जाते थे।ब्रिटिश सरकार ने 9200 सैनिकों को वीरता पदक दिया, 1931 में सैनिकों की याद में दिल्ली में इंडिया गेट बनाया4 साल तक चली लड़ाई में 30 देशों के 99 लाख सैनिक मारे गए थे, अमेरिका 7 माह युद्ध लड़ा और 1.20 लाख सैनिक गंवाऐ!

पहले विश्व युद्ध में भारतीय सैनिक सितंबर 1914 में ब्रिटेन की ओर से युद्ध में शामिल हुए थे। कॉमनवेल्थ वॉर ग्रेव कमीशन के मुताबिक 4 साल तक चले इस युद्ध में अविभाजित भारत की ओर से 11 लाख से ज्यादा सैनिकों ने हिस्सा लिया था। भारतीय सेना ने पूर्वी अफ्रीका और पश्चिमी मोर्चे पर जर्मन, ऑटोमन (तुर्क) साम्राज्य  के खिलाफ युद्ध लड़ा। इसके अलावा भारतीय सैनिक मिस्र, फ्रांस और बेल्जियम में भी लड़े।

करीब 7 लाख भारतीय सैनिक अकेले तुर्क साम्राज्य के खिलाफ मेसोपोटामिया में मोर्चे पर डटे थे। इस युद्ध में 74,911 भारतीय सैनिक मारे गए। 67 हजार सैनिक घायल हुए। भारत की ओर से युद्ध में शामिल हुए सैनिकों में करीब आधे संयुक्त पंजाब प्रांत से थे। तब पंजाब में साक्षरता दर महज 5% थी। उनमें से कुछ ही सैनिक दस्तखत करना जानते थे। फ्रांस में भारतीय और ब्रिटिश दोनों ही टुकड़ियों का नेतृत्व सर डगलस ने किया था।

1915 की शुरुआत में भारतीय सैनिकों को पहले आराम दिया गया, लेकिन जल्द ही उनकी युद्ध में वापसी हुई। युद्ध के बाद ब्रिटिश सरकार ने 9200 भारतीय सैनिकों को वीरता पदकों से सम्मानित किया। सरकार ने पहले विश्व युद्ध में शहीद हुए 74 हजार भारतीय सैनिकों की याद में दिल्ली में 1921 में इंडिया गेट की आधारशिला रखी। यह 1931 में बनकर तैयार हुआ। इसमें 13,300 हजार से ज्यादा सैनिकों के नाम हैं। जोधपुर के राजा सर पेरताब सिंह भी युद्ध में लड़े थे। कहा जाता है कि उन्होंने युद्ध लड़ने के लिए वायसरॉय के दरवाजे पर धरना दे दिया था।

युद्ध के दौरान भारत से 172,815 जानवर भेजे गए। इनमें घोड़े, खच्चर, टट्टू, ऊंट, बैल और दूध देने वाले मवेशी शामिल थे। इनमें 8970 खच्चर और टट्टू ऐसे भी थे, जिन्हें बाहर से भारत लाकर प्रशिक्षित किया गया था और फिर युद्ध प्रभावित क्षेत्रों में भेजा जाता था।

प्रथम विश्व युद्ध 4 साल, 3 महीने, 2 हफ्ते तक चले पहले विश्व युद्ध में 30 देश शामिल थे। 6 करोड़ 82 लाख सैनिक लड़े। 99 लाख 11 हजार सैनिक मारे गए। इनमें 75 हजार भारतीय थे। यह दूसरे विश्व युद्ध तक सबसे बड़ी मानवरचित त्रासदी थी। दूसरे विश्व युद्ध में सैनिकों समेत कुल 7.3 करोड़ लोग मारे गए थे। लेकिन, सबसे ज्यादा आविष्कार पहले विश्व युद्ध के दौरान हुए।

इस युद्ध में करीब 15 लाख करोड़ रु. खर्च हुए। मित्र देशों ने 10.7 लाख करोड़ रुपए खर्च किए। इसमें ब्रिटिश साम्राज्य ने अकेले 3.4 लाख करोड़ रुपए का योगदान दिया। केंद्रीय शक्तियों ने 4.4 लाख करोड़ रुपए खर्च किए। सबसे ज्यादा योगदान जर्मनी का 3.3 लाख करोड़ का था। युद्ध के बाद ब्रिटेन, इटली और अमेरिका की जीडीपी में इजाफा हुआ। जर्मनी की अर्थव्यवस्था 27% गिर गई। अन्य देशों की जीडीपी आधी तक घट गई।

58 देशों ने लीग ऑफ नेशंस बनाया युद्ध के बाद 10 जनवरी 1920 को लीग ऑफ नेशंस का गठन हुआ। इसमें 58 देश शामिल थे। हालांकि ये देश 19 साल बाद दूसरे विश्वयुद्ध को रोक नहीं पाए। 28 जून 1919 में पेरिस शांति संधि पर दस्तखत हुए। इसमें एक तरफ जर्मनी था, तो दूसरी तरफ फ्रांस, इटली, ब्रिटेन और अन्य दूसरी ताकतें थी। संधि में जर्मनी से आर्थिक मुआवजे की मांग की गई। 1919 में वारसाय संधि में जर्मनी को युद्ध का जिम्मेदार बताया गया।

युद्ध समाप्त होते ही 9 देश बने युद्ध खत्म होते ही ऑस्ट्रिया-हंगरी साम्राज्य से अलग होकर ऑस्ट्रिया, हंगरी, चेकोस्लोवाकिया, यूगोस्लाविया बने। जर्मनी-रूस से एस्टोनिया, लातेविया, लिथुआनिया, पोलैंड और फिनलैंड बने। 100 साल में दुनिया में 51 अफ्रीकी और 44 नए एशियाई देश बने। दुनिया में सैनिकों की याद में 2 लाख से ज्यादा वार मेमोरियल बनाए गए हैं।

ब्रिटेन से 2.50 लाख सैनिक ऐसे भी लड़े, जिनकी उम्र 18 साल से कम थी : युद्ध में ब्रिटिश जनरल को लड़ने से  मना कर दिया गया, क्योंकि ब्रिटेन को डर था कि यदि उसके सभी बड़े अधिकारी मार दिए जाएंगे तो रणनीति कैसे बनेगी। युद्ध में ब्रिटेन की ओर से 2.50 लाख सैनिक ऐसे लड़े, जो 18 साल से कम थे। सबसे कम उम्र का सैनिक 12 साल का था। ब्रिटेन की डाक सेवा ने युद्ध के दौरान सैनिकों तक
एक सप्ताह में 1.2 करोड़ पत्र पहुंचाए।

प्रथम विश्व युद्ध में 30 ज्यादा देश शामिल हुए। इसमें दो धुरी थी। एक ओर 17 से ज्यादा मित्र देश थे, जिनमें सर्बिया, ब्रिटेन, जापान, रूस, फ्रांस, इटली और अमेरिका आदि थे। दूसरी ओर सेंट्रल पावर जर्मनी, ऑस्ट्रिया, हंगरी, बुल्गारिया और ऑटोमन साम्राज्य था। यह युद्ध यूरोप, अफ्रीका, एशिया और उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका महाद्वीप में लड़ा गया। इसमें आधी दुनिया प्रभावित हुई।

युद्ध से 4 बड़े साम्राज्य रूस, जर्मनी, ऑस्ट्रिया-हंगरी और उस्मानिया ढह गए। यूरोप की सीमाएं फिर से
निर्धारित हुईं। अमेरिका महाशक्ति बनकर उभरा। पहली बार इसी युद्ध में जर्मनी ने केमिकल गैस का इस्तेमाल  किया। अमेरिका युद्ध में सिर्फ 7 महीने लड़ा, पर उसके 1.20 लाख सैनिक मारे गए और 2 लाख घायल हुए।

भले ही पहले विश्व युद्ध को 100 साल पूरे हो रहे हैं लेकिन बुनियादी सवाल अभी भी उलझा हुआ है. आखिर प्रथम विश्व युद्ध किसने शुरू किया.जानकार और इतिहासकार इस मामले में नए तथ्यों को सामने ला रहे हैं.

ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी की कनाडाई प्रोफेसर मार्गरेट मैकमिलन का कहना है, "यह ऐसा दुर्दांत युद्ध था, हमारा सहज मानव स्वभाव है कि इसके लिए किसी पर इलजाम लगाया जाए." उन्होंने किताब लिखी है, 'पहला विश्व युद्ध, जिसने शांति खत्म कर दी'.

युद्ध खत्म होने के बाद 1919 में वरसाई की संधि में जर्मनी को युद्ध का जिम्मेदार बताया गया और इसके लिए बर्लिन पर बंदिशें लगाई गईं. लेकिन 1920 से ही माना जाने लगा कि इस युद्ध के लिए "सभी जिम्मेदार थे, या कोई नहीं". जर्मनी के इतिहासकार फ्रित्ज फिशर ने 1961 में एक किताब लिखी और जर्मनी के लोगों की खूब नाराजगी झेली. उन्होंने किताब में लिखा कि निश्चित तौर पर जर्मनी को ही इसका दोषी समझना चाहिए. उन्होंने लिखा कि 1914 में जर्मन प्रशासन युद्ध शुरू करना चाहता था. उनका तर्क है कि ऐसी ही परिस्थितियों में दूसरे विश्व युद्ध की शुरुआत भी जर्मनी ने ही की थी.

उनके इस तर्क का काफी बरसों तक सम्मान किया जाता रहा लेकिन हाल के बरसों में इतिहासकारों ने उनके तर्क पर सवाल उठाने शुरू किए हैं. उनका कहना है कि कई देश इसके लिए जिम्मेदार थे और उनका क्रम कुछ इस तरह थाः जर्मनी, ऑस्ट्रिया-हंगरी, रूस, सर्बिया, फ्रांस और ब्रिटेन

साल 2012 में आई किताब ने इस मुद्दे को फिर सुलगा दिया. ऑस्ट्रिलेयाई इतिहासकार क्रिस्टोफर क्लार्क की किताब द स्लीपवॉकर्स में दावा किया गया है कि जून 1914 में ऑस्ट्रियाई-हंगेरियाई राजकुमार की सारायेवो में हत्या किया जाना ही युद्ध की शुरुआत की इकलौती वजह नहीं थी. उनका कहना है कि यह बाल्कन युद्ध का नतीजा था, जो 1912 और 1913 में हुआ था. हालांकि उस युद्ध में ऑस्ट्रिया-हंगरी ने हिस्सा नहीं लिया था. युद्ध के बाद ही उस्मानिया शासकों को यूरोप खाली करना पड़ा था.

उन्होंने लिखा है कि प्रथम विश्व युद्ध "अगाथा क्रिस्टी का ड्रामा" नहीं था, "इसमें धुआं छोड़ती बंदूकें नहीं थीं, बल्कि ये बंदूकें हर किसी के हाथ में थीं." प्रकाशन के बाद से ही यह किताब जर्मनी में खूब बिकी है. जर्मनी के इतिहासकार गेर्ड क्रुमिष का हालांकि कहना है, "क्लार्क ने कुछ बातों को नजरअंदाज कर दिया. मिसाल के तौर  पर ऑस्ट्रिया चाहता था कि सर्बिया के खिलाफ युद्ध हो और उस स्थिति में जर्मनी यह देखना चाहता था कि क्या  रूस भी युद्ध के लिए तैयार है." उनका कहना है, "1914 में जर्मनों ने बटन दबाया, फ्रांसीसियों ने नहीं, और न ही रूसियों ने."लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के इतिहासकार सोएन्के नीटजेल का कहना है कि वह क्लार्क की बातों से इत्तेफाक रखते हैं कि सिर्फ जर्मनी ही युद्ध के लिए जिम्मेदार नहीं था.

हालांकि प्रथम विश्व युद्ध से पहले भी यूरोप में खूब लड़ाइयां हुईं लेकिन वो इतनी बड़े युद्ध में नहीं बदलीं. वजह यह थी कि नेता वहां तक नहीं जाते थे. मैकमिलन का कहना है, "लेकिन इस संकट ने एक दागदार विरासत छोड़ दी. लोगों ने शायद सोचा कि हमारे सामने तो पहले भी संकट आया था और हम उससे निपटे थे. लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह है कि जो नेता पहले पीछे हट जाया करते थे, उन्होंने तय कर लिया था कि इस बार वे नहीं हटेंगे."

वह कहती हैं, "रूस के मामले में यह बात सही साबित होती है, 1908 में बोस्नियाई युद्ध के दौरान वह पीछे हट गया था. 1912 और 1913 में सर्बियाई युद्ध के दौरान भी वह हट गया था और मैं समझती हूं कि उन्होंने सोचा कि अगर वे फिर से पीछे हटे, तो उन्हें बड़ी शक्ति नहीं माना जाएगा.“

उनका कहना है कि मामला तब गड़बड़ा गया, जब ऑस्ट्रिया-हंगरी ने जुलाई 1914 में सर्बिया को नष्ट करने का  फैसला कर लिया और उन्हें जर्मनी की तरफ से समर्थन मिल गया. उनका कहना है, "हम जिम्मेदारी तय कर सकते हैं लेकिन किसी एक पर इसका इलजाम नहीं लगा सकते."

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