कुछ न कुछ लिखते रहना चाहिए। यही एक चीज ह जो आपको 'जिंदा' रहने का अहसास दिलाती है और जिसे सालों-साल पढ़ा जा सकता है। बाकी शोर तो हर तरफ मचा हुआ है। लिखने का मेरा मकसद जीने की इस लंबी ड्यूटी को सुलझाना और दिलचस्प बनाना है। अगर औरों के साथ पेश आने की आपकी तमीज़ इस बात पर निर्भर करती है कि सामने वाले का ओहदा क्या है, उसका मज़हब क्या है या उसके पास कितनी दौलत है, तो मेरा यह ब्लॉग आपके लिए भी है। कोशिश करता हूं, आपको जोड़ सकूं उन कहानियों से जिनके किरदार हम कभी न कभी जीते हैं, इस बात से बेखबर कि इस दौरान हम हर पल एक कहानी रच रहे हैं...लिखना स्वयं के करीब और स्वयं को खोजने का प्रयास है भीतर के इंसान का शब्दों के माध्यम से खुली हवा में ज़िंदा पल जीने की जिजीविषा ... लिखने के उपरान्त मिले संतोष का अवचेतन मुक्ति से कम नहीं है , क्या प्रफेशनल लाइफ में कदम रखते ही सफलता सारे जज्बातों से ऊपर हो जाती है? हफ्ते के छह दिन सिर्फकाम और काम। सातवां दिन अपने लिए और आने वाले छह दिन फिर वही भागदौड़। न दोस्त के लिए वक्त रहा और न दोस्ती के लिए।
क्यों ऐतबार हो इतना,रोज हम अगर-मगर कर गए।
बीए एम्ए हुए,नौकर हुए,पेंशन मिली और मर गए।।
वाकई क्या जिंदगी है। क्या इतने में भी खुश हो जाये या कुछ और भी करे? सवाल खुद से तो जवाब और कहाँ मिलेगा? दिखने में मैं जितना आराम-फरामोश हूँ, खुश हूँ,होशियार हूँ, हकीकत में मैं एक लापरवाह की हद तक परवाह इंसान हूँ। लेकिन भगवान ने एक गुण गलती से डाल दिया! वो है संवेदनशीलता।यह कीड़ा रोज परेशान करता है। हकर भी दुनियां से विमुख होकर, खुद में मस्त हो नहीं सकता। मैं बहुत लापरवाह हूँ। सत्य व् ईमानदारी का इतना पक्का कि उसके सामने हर बनी मंजिल को कभी भी गिरा देता हूँ। जब भी बीच राहों में कुछ गड़बड़ का पता चलता है तो तुरंत वापिस मुड़ जाता हूँ। हो सकता है वक्त व जमाने के हिसाब से मैं अपने आप को अनुकूलित कर नहीं पाया हूँ। मैं आज तक तय नहीं कर पाया कि असली सफल कौन है? सफलता का पैमाना क्या है?जीवन का मकसद क्या है? जैसे जैसे आगे बढ़ता हूँ, अंदर से खाली होता जाता हूँ। पहले फूलों की तरह मुलायम होता तो आज अंदर से कंटीली थोर जैसा हो रहा हूँ। अपने आप को राह पर चलते राही के रूप में पेश करने के लिए अपने हर रिश्ते को विराम देने की फ़िराक में लगा हूँ। क्या अपनों को भूलकर परायों के साथ जीवन का सुकून मिल पायेगा? संदेह व संघर्ष के अथाह समुद्र में तीर चला रहा हूँ। पीछे की और मुड़कर देखता हूँ तो आगे बढ़ने की जद्दोजहद में लगे लोग मुझे आगे बढ़ने की प्रेरणा देते है। सफ़र के हर पड़ाव का विश्लेषण करता हूँ तो पाता हूँ कि हर अगले पड़ाव पर इंसान खोखला होता जाता है। तो करे क्या? यह सवाल मेरी आत्मा में तीर की तरह चुभ रहा है।
रोज नजर पड़ती है उन तमाम हफ़िलों पर !
जहाँ सजे संवरे लोग बहुत है पर अपना कोई नहीं !!
चकाचौन्द भरी दुनिया में कौन-किस तरफ जा रहा है! कुछ भी पता नहीं चलता। मतलब बिलकुल स्पष्ट है....वक्त हमारे अनुकूल स्वयं की लय में कोई बदलाव तो लाने से रहा फिर .....फिर हमें स्वयं को वक्त कर ताल के साथ ही कदम ताल करना होगा। दिन के उजालो में भागते भागते हम थक कर इतने बिखर जाते है कि कभी रात अंधियारे में बिखरे मासूमियत का एहसास ही नहीं कर पाते। कुछ बुनियादी भाव और धारणाओं के प्रति हमारा नकारात्मक सोच ही हमें आगे नहीं बढ़ने दे रहा है। हर वक्त याथर्थ के धरातल को ही टटोलना जरुरी नहीं है, कुछ पल ऐसे ही दिनों के बहाने कल्पना के सृजनलोक में विचरण कीजिये। कभी कभी कुछ कहने का मन करे तो कह डालना चाहिये बस इसी बात से प्रेरित होकर यह ब्लॉग शुरु किया है. मैं न तो सफल हूँ ना ही असफल और ना ही जीवन को इन पैमाने पर आँकता हूँ. किन्तु कुछ कह सकने का साहस तो होना ही चाहिये जो कि जीवन जीने की एक कसौटी है. मेरा परिचय मात्र इतना है कि मैं एक पथिक हूँ जिसने अभी अभी यात्रा शुरु तो की है किन्तु जिसे ना तो मंजिलों की झलक है और ना ही रास्ते का पता………….
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