हम कहाँ हार रहे है?

शिक्षा मानव सभ्यता की बेहतरी की बुनियाद है।समृद्ध व विकसित समाज का रास्ता शिक्षा से होकर गुजरा है।जिन देशों को आज हम बेहतर व विकसित कहते है उन्होंने सबसे पहले अपने देश को शिक्षा के मंच पर खड़ा किया था।

तमाम यूरोपियन देशों की शिक्षा व्यवस्था का अध्ययन करते है तो पाते है कि उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में समर्पण के साथ भारी निवेश किया था जिससे वहां के युवाओं में वैज्ञानिक सोच पैदा हुई,नए-नए अनुसंधान हुए और वहां के समाज को इसका फायदा मिला।

देश सीमाओं,सेनाओं,बारूद के ढेरों,ऊंची इमारतों,पुलों,सड़कों से नहीं बनता है,देश शिक्षित व समृद्ध नागरिकों से बनता है।आज भारत मे वो हर चीज वैश्वीकरण से हासिल हो गई जो दुनियाँ के समृद्ध समाजों/देशों के पास है मगर जो चीज समाज/देश खुद को पैदा करनी होती है उसमें बिल्कुल हारा हुआ देश है।

दुनियाँ की टॉप 300यूनिवर्सिटी में भारत की कोई यूनिवर्सिटी नहीं है और टॉप 500 में 6 है जिसमे 5 आईआईटी संस्थान है व एक बेंगलुरु साइंस इंस्टीट्यूट।जनसंख्या की दृष्टि से देखा जाए तो पूरे यूरोप-अमेरिका को भारत अकेला कवर कर लेता है।

अशिक्षित समाज पूंजीवादी व्यवस्था में कभी खुशहाल नहीं हो सकता।1991के बाद भारत मे तेजी से निजीकरण व शहरीकरण बढ़ा है।इसके दुष्परिणाम देखे जाएं तो हमारी बढ़ती बदहाली को निरूपित करते है।आज शहरों में चमचमाती कान्वेंट/निजी स्कूल है तो दूसरी तरफ जर्जर सरकारी स्कूलें है।उच्च वर्ग के लोगों की शिक्षा की व्यवस्था अलग व गरीब लोगों की शिक्षा व्यवस्था अलग यानि शिक्षा से वंचित रखने का उपाय नजर आता है।

एक तरफ पॉश कॉलोनियां बसी है तो दूसरी झुग्गियों का क्लस्टर है।पॉश इलाकों में बड़े-बड़े निजी अस्पताल है तो झुग्गी बस्तियों में झोला छाप डॉक्टर।यह ऐसा सरंचनात्मक विभेद है जो आगे से आगे समाज को बांटता जाता है।आज शहरों की गरीब बस्तियां व गांव चिकित्सा व्यवस्था से महरूम है क्योंकि उच्च वर्गीय समाज के कान्वेंट स्कूलों में पढ़े बच्चे देश के गरीबों,गांव में बसने वाले भारत को समाज का हिस्सा मानने के बजाय कमाई का ग्राहक मात्र समझता है।दुःख की बात यह है कि वो भी उनके बीच जाकर नहीं खुद के पास बुलाना चाहते है।

पिछले साल भारत की तरह विकासशील देश ब्राजील ने गांवों में डॉक्टर नियुक्त करने के लिए 50हजार डॉक्टर की भर्ती निकाली मगर आवेदन मात्र 938 आये।फिर दूसरे देशों से डॉक्टर नियुक्त करने शुरू किए तो सबसे आगे क्यूबा के डॉक्टर आये।भारत मे भी ब्राजील की तरह सरकार कोशिश कर रही है कि डॉक्टर गांवों में सेवाएं दें मगर सफलता नहीं मिल पा रही है क्योंकि गलती बुनियाद में है और समाधान सतही ढूंढे जा रहे है।कान्वेंट स्कूल में पढ़े उच्चवर्गीय लोग देश/समाज को कूड़ा समझते है!यह सोच हमारी शिक्षा व्यवस्था पैदा करती है जिसे नारों/योजनाओं से खत्म नहीं किया जा सकता।

शिक्षा समाज की मूलभूत आवश्यकता है व समाज को खड़ा करने का मूल भी।भारत जैसे देश मे जब तक समाजवादी व्यवस्था हावी रही तब तक शिक्षा का प्रसार होता रहा मगर पूंजीवादी व्यवस्था के आगमन के साथ शिक्षा सिमटने लग गई!चंद स्कूल या कॉलेजों के आउटपुट को सामने रखकर गुणगान भले ही कर लिया जाएं मगर साक्षरता से आगे शिक्षा नहीं बढ़ पा रही है।शिक्षित भारत के बजाय हम साक्षर भारत मे ही फंस गए और साक्षर भारत भविष्य का निरक्षर भारत ही होगा!

शिक्षा के प्रसार में सरकारी शिक्षा व्यवस्था ही कारगर रही है।निजी शिक्षा व्यवस्था अमीरों के बच्चों तक सीमित रह जाती है।19वीं सदी में यूरोप व अमेरिका की सरकारी शिक्षा व्यवस्था ने वहां के समाज का कायापलट कर दिया था।फिर जापान,सोवियत संघ व कई साम्यवादी सरकारों ने इसे सरकार की जिम्मेदारी माना और अपने बच्चों को उपलब्ध करवाया।चीन हमारा पड़ौसी देश है।चीन की सस्ती चीजें हमारे यहां यूँ ही नहीं आई है बल्कि चीन ने अपने बच्चों को सरकारी शिक्षा व्यवस्था के माध्यम से समृद्ध किया और ये शिक्षित बच्चे नई-नई तकनीक ईजाद करके देश की अर्थव्यवस्था को मजबूती दे रहे है।

लातिन अमेरिकी देश क्यूबा का ही उदाहरण ले लीजिए!1969 के बाद फिदेल कास्त्रो ने सरकारी शिक्षा व्यवस्था के माध्यम से अपने देश के नागरिकों को इतना मजबूत बना दिया कि आधी सदी से अमेरिका उसे तोड़ने का अभियान चलाए हुए है मगर हर नागरिक एक मिसाइल मैन की तरह खड़ा है।बिना बड़े हथियारों के एक छोटा सा द्वीपीय देश दुनियाँ के सबसे ताकतवर देश के सामने डटकर खड़ा है।

इसलिए कहा जाता है कि देश शिक्षित व समृद्ध नागरिकों से मजबूत होता है।किसी भी देश को विदेशी खतरा हथियारों से अपने कमजोर नागरिकों से होता है।दिमाग व पेट से कमजोर नागरिक सदा बिकने को तैयार रहेंगे।देश विरोधी गतिविधियों में लिप्त लोगों का विश्लेषण करके देख लीजिए।इसलिए हथियारों की होड़ में फंसकर बजट खराब करने के बजाय शिक्षा में निवेश किया जाना चाहिए।भारत का शिक्षा बजट हमेशा 2%के आसपास ही रहा है।इसमें से भी हायर एजुकेशन के नाम पर कुछ यूनिवर्सिटीज हड़प लेती है।

शिक्षा व चिकित्सा रोटी-कपड़ा-मकान के साथ वो बुनियादी अधिकार है जिनके बिना रोटी-कपड़े-मकान का दुष्चक्र तोड़ना संभव नहीं है।चिकित्सा उपलब्ध करवाने के लिए हमे समर्पित डॉक्टर चाहिए वो हमें सरकारी शिक्षा व्यवस्था ही उपलब्ध करवा सकती है।सरकार को बाकी सब विभागों के बजट में कटौती करके शिक्षा पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए व नई शिक्षा नीति नई बोतल में पुरानी दारू परोसने समान है जिसे कूड़ेदान में फेंककर  निजी स्कूलों का राष्ट्रीयकरण करके कारगर शिक्षा पद्धति की शुरुआत करनी चाहिए।

आज जिस राह पर सरकार चल रही है,शिक्षा का बड़े पैमाने पर निजीकरण किया जा रहा है,शिक्षा महंगी की जा रही है वो मुल्क के अंदर कई मुल्क खड़े करने वाली है।अखंड नहीं खंड-खंड भारत की तरफ रास्ता जा रहा है।विकसित नहीं अराजक भारत बन रहा है।आजादी के समय 80%भारतीयों के पास शिक्षा हासिल करने की सुविधा नहीं थी और आज 80%भारतीय मात्र साक्षर हो रहे है।मतलब साफ है कि घूम-फिरकर हम उसी जगह खड़े है।


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