मेहनतकशों के धर्मभीरु बनने के दुष्प्रभाव!

जब हम लोग नब्बे व 2हजार के दशक में सरकारी स्कूल जाते थे तो एक सम्मान भरी नजर से देखा जाता था।गांव के बच्चों में आपस में पढ़ाई को लेकर पूरी प्रतियोगिता होती रहती थी।जिसके अच्छे नंबर आते थे उनको गांव में सम्मान मिलता था।गांव के बड़े-बुजुर्ग हर पढ़ने वाले बच्चे के संरक्षक होते थे।कहीं गलती करते थे तो कोई भी पकड़कर थप्पड़ मार देता था!घरवाले भी उनका आभार जताते थे कि मेरे बच्चे का ख्याल रख रहे है!

आज गांवों के सरकारी स्कूलों को देखता हूँ व पढ़ने वाले बच्चों की तरफ देखता हूँ तो मन मे बहुत पीड़ा होती है।जो गांव परिवार बनकर हमे प्यार व सरंक्षण देते थे वो गांव अपनत्व की भावना खोते जा रहे है।आज गांवों में स्टैण्डर्ड की जंग शुरू हो चुकी है।सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को दोयम दर्जे का समझा जाता है,हेय दृष्टि से देखा जाता है।ये गरीबों के बच्चे है।जिनके पास थोड़ा पैसा आया उन्होंने अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों से निकालकर निजी स्कूलों में दाखिला करवा दिया है।गरीब हम भी थे व गरीब आज भी सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे है।बच्चे वहीं खड़े है मगर समाज अपना कर्तव्य भूल गया!गांव ने अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ लिया!

यह बदलाव किस स्तर पर व किस स्वरूप में आया उसको हमे जानने की जरूरत है।क्यों स्कूल के मैदान से हंसते-खेलते बच्चे गायब हुए और कैसे निराशा के भाव मे लिपटे बच्चे मिड डे मील का कटोरा लेकर खड़े हो गए!

स्कूल नहीं जाने पर घर के दरवाजे पर दस्तक देने वाले अध्यापक आज स्कूल से अपने घर व घर से स्कूल की चारदीवारी में सिमट चुके है।गांव के मुख्या लोग जो बीच-बीच मे स्कूल का दौरा कर लेते थे वो अब धर्म व राजनीति के स्वनिर्मित अड्डों पर बहसबाजी करते नजर आते है।

जो गांव के सक्षम लोग सब बच्चों को अपना समझ स्कूल में सुविधाओं के लिए सहयोग करते थे वो अब मंदिरों के निर्माण में बोलियां लगाने लग गए!गांव के सक्षम लोगों ने आलीशान मंदिर बनाने में ध्यान केंद्रित करके स्कूल से बेरुखी दिखाई और स्कूल देखते ही देखते पाठशाला से भोजशाला बनते गए!

जब समाज वैज्ञानिक दृष्टिकोण से आगे बढ़ता है तो सरकारी स्कूल गुलजार होता है और जब समाज धर्म भीरु बनता है तो सरकारी स्कूल खंडहरों में तब्दील होते जाते है।जब हम पढ़ते थे तो गांव में कोई मंदिर है भी या नहीं,इसकी जानकारी भी नहीं थी क्योंकि हमारे बुजुर्गों ने शिक्षा पर जोर दिया था और हर बच्चे को अपना बच्चा माना।आज छोटे से छोटे बच्चे को भी स्कूल की जानकारी हो न हो मंदिरों की पूर्ण जानकारी है क्योंकि वर्तमान पीढ़ी  बच्चों को शिक्षा के बजाय धर्म की जानकारी उपलब्ध करवा रही है!

सक्षम लोगों ने अपने बच्चों को निजी स्कूलों में दाखिल करवाकर बाकी बच्चों को अपने समाजसेवी बनने,नेता बनने के लिए उपयोग करना शुरू कर दिया है।गांव-गवाड़ में बैठकर ताश के पत्तों के साथ देश की सत्ता बदलने का दावा करने वाले लोग नीचे से खिसकती जमीन को नहीं रोक पा रहे है!बड़ी विकट परिस्थितियां है गांव के बच्चों के सामने!

उस दौर के नेताओं ने लड़कर मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करवा ली,बाद में भी लड़कर आरक्षण ले लिया!आज नेताओं से लेकर सामाजिक संगठनों के लोगों तक की मति पर धूल जम चुकी है!

गांव की इन स्कूलों में विकट हालातों के बावजूद अगर कोई पढ़कर कॉलेज तक का सफर तय कर लेता है और नौकरी के काबिल बन भी जाता है तो आगे का रास्ता लगभग खत्म किया जा चुका है मगर सक्षम लोगों ने मुँह पर ताला लगा लिया है।

चूहों की मौत पर खामोशी बरतने वाले लोगों को समझना चाहिए कि आग पूरी बस्ती में लगी है जिसके बीच खुद का आलीशान मकान बना हुआ है!इन गरीब बच्चों के भविष्य को दरकिनार करने वाले लोगों को समझना होगा कि उनका बेटा पौता भी बिना माहौल मिले तारे तोड़कर नहीं ले आयेगा और माहौल पूरे गांव व समाज से बनता है!

जो अध्यापक इन विकट परिस्थियों में भी व्यक्तिगत प्रयास कर रहे है उनको सैलूट करता हूँ व जो गिने-चुने लोग सरकारी स्कूलों को संजोने,संवारने में लगे है उनको सलाम करता हूँ।

जो नेता,सामाजिक संगठनों के मुख्या, सक्षम लोग इस बनी बनाई बग्गियां को उजड़ती देखकर खामोश बैठे है उनको लानत भेजता हूँ।


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