बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना!

दिल्ली विधानसभा चुनावों के बाद एक चर्चा देशभर में जोर पकड़ रही है कि काम करने वाले की जीत हुई है व इससे बाकी राज्यों के नेताओं पर भी दबाव कायम होगा!देशभर से जुड़े हुए लोग अपने-अपने राज्यों में क्षेत्रीय क्षत्रपों में मसीहा ढूंढने लग गए है!आकलन,कल्पना,हवा बनाना अच्छी बात है मगर लोगों को एक बात पर गौर जरूर करना चाहिए कि जीत के बाद केजरीवाल जिस मंच पर खड़े होकर धन्यवाद दे रहे थे उस पर सिर्फ केजरीवाल की फोटो थी व साइड में देशभर के लोगों को सदस्य बनने के आमंत्रण देते बड़े-बड़े अक्षरों में मोबाइल नंबर दिए गए थे!यह साफ संकेत है कि राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी का विकल्प इधर से ही बनेगा!

शहर धर्म व जाति के साथ लगाव को कम करके आर्थिक हालातों पर ध्यान केंद्रित करता है अर्थात दिल्ली के नतीजे साफ बता रहे है कि धर्म-जाति का कोई महत्व नहीं,बस सरकारें आर्थिक स्तर में सुधारों की तरफ देखें!दूसरी बात,केजरीवाल एक राष्ट्रीय आंदोलन से निकले नेता है और दिल्ली में पिछली बार मिले प्रचंड बहुमत के बाद दूसरे राज्यों में लड़े चुनावों व आम लोकसभा चुनावों में बुरी तरह हार गए थे!इस बार बड़ी रणनीति के तहत केजरीवाल आगे बढ़ेंगे या बढ़ाये जाएंगे!

इतिहास सबक का विषय होता है इसलिए मैं मुख्यतया दो लोकसभा चुनावों का संक्षिप्त में जिक्र करूँगा!1977 के चुनाव जनसंघ,भारतीय लोकदल,सोशलिस्ट पार्टी व कांग्रेस छोड़कर आये मोरारजी देसाई की पार्टी "कांग्रेस ओ"ने मिलकर चुनाव लड़ा था।बाबू जगजीवन राम जनाधार वाले बड़ा दलित चेहरा थे व चौधरी चरणसिंह यूपी सहित उत्तर भारत के किसानों के बड़े नेता था।मगर जनसंघ ने ऐसा खेल खेला कि मोरारजी देसाई को प्रधानमंत्री बना दिया गया।जेपी निराश हुए!आडवाणी के सामने नाराजगी जताई कि हमारी तय शर्तों के मुताबिक आरएसएस को दूर रखना था!आपने मंच का दुरुपयोग किया!आरएसएस ने अपना खेल खेल दिया व बाद में चौधरी चरणसिंह ने खूब प्रयास किया मगर आरएसएस व कांग्रेस ने मिलकर उभरे क्षेत्रीय नेताओं को खत्म कर दिया।

1980 में संघ मंच से उतरकर पर्दे के पीछे चला गया व जनसंघ से भारतीय जनता पार्टी बनी।1984 में मात्र 2लोकसभा सीटें हासिल हुई!राजीव गांधी के खिलाफ कांग्रेस छोड़कर आये वीपी सिंह,लोकदल व भारतीय जनता पार्टी ने 1989 का चुनाव मिलकर लड़ा!चौधरी देवीलाल बड़े जनाधार वाले नेता थे मगर देवीलाल,शरद यादव,लालू यादव,मुलायम सिंह यादव ने मिलकर वीपी सिंह को प्रधानमंत्री बना दिया।दबाव डालकर मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करवा दी!

भाजपा ने समर्थन वापिस लेकर सरकार गिरा दी।मध्यावधि चुनावों में राजीव गांधी दुबारा चुनकर आये और भाजपा के साथ मिलकर रामलला के ताले खुलवाकर कमंडल आंदोलन को ईंधन दे दिया!पूरे उत्तर भारत मे भाजपा ने इसका बखूबी उपयोग किया और खुद को उस स्तर पर ले आये कि या तो वो सरकार बनाये या उसके समर्थन से बने!आगे जाकर हुआ भी यही कि क्षेत्रीय पार्टियां भाजपा की पिछलग्गू बनने को मजबूर हो गई!भाजपा हारी तो कांग्रेस की पिछलग्गू बनना पड़ गया!कुल-मिलाकर कांग्रेस-बीजेपी ने मिलकर क्षेत्रीय पार्टियों के खात्मे की लड़ाई ही लड़ी है!

लगातार दो चुनावों में शिकस्त खाई कांग्रेस अब भविष्य में दुबारा खड़ी नहीं हो सकती क्योंकि क्षेत्रीय नेताओं की पिछलग्गू बन चुकी है।आरएसएस अब कांग्रेस को दुबारा खड़ा करना चाहता नहीं है क्योंकि कांग्रेस अब खड़ी होगी भी तो क्षेत्रीय जनाधार वाले नेताओं के बूते ही और क्षेत्रीय जनाधार वाले नेता आरएसएस की बात मानते नहीं है!

मैंने राष्ट्रीय चुनावों के संक्षिप्त इतिहास का जिक्र इसलिए किया क्योंकि दिल्ली में बीजेपी की हार व केजरीवाल की जीत के बाद बाकी राज्यों की युवा पीढ़ी को केजरीवाल भविष्य का विकल्प नजर आने लगा है वो ठीक से समझ सके कि केजरीवाल विकल्प बनकर उभरा नहीं है बल्कि चतुराई के साथ उभारा गया है!बीजेपी की हार पर हास्य-व्यंग्य ठीक है मगर इस जीत में हम कहीं नहीं है!

दो बातें हम लोगों को साफ-साफ समझ लेनी चाहिए कि बीजेपी की हार पर हम खुश है,कांग्रेस के डूबने पर हम खुश है मगर बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना बनकर नाचने की कोई जरूरत नहीं है!केजरीवाल को विकल्प मान लेना फिर से 1977,1989 की तरह के धोखे का अग्रिम आमंत्रण है!केजरीवाल की जीत में न सोशल जस्टिस की जीत है,न हिस्सेदारी के अनुरूप भागीदारी की जीत है!शहरी अमीरों द्वारा गरीबों पर राज करने के लिए एक वर्ग विशेष के शातिर समूह की जीत है!

कुछ साथी कह रहे है फलाने नेता को आम आदमी पार्टी जॉइन कर लेनी चाहिये!यही आवाज़ें अन्य राज्यों से भी उठने लगी है!अगर किसी पार्टी में जाकर वर्ग विशेष की सेवा में ही लगना है तो कांग्रेस-बीजेपी में क्या बुराई है?दिल्ली से निकलकर जब अन्य राज्यों में आम आदमी पार्टी आयेगी तो इनको भी धार्मिक व जातीय दलालों की खुद ही जरूरत पड़ जायेगी और यह अपने हिसाब से खुद ही चयन कर लेगी,आप खुद बेचने के लिए क्यों उतावले हो रहे हो!जब तक अपने लोग मिलकर,अपनी विचारधारा के अनुरूप,अपने नेता तैयार करके खुद नहीं लड़ेंगे तब तक कोई बदलाव नहीं आने वाला!नेता किसी की भी लटकन बने क्या फर्क पड़ता है!हम दूसरों की जीत को अपनी जीत मानकर आज भी तालियां बजा ही रहे है!

दिल्ली के चुनाव राष्ट्रीय प्रोपगेंडा का चुनाव था।एक प्रोपगेंडा जीता है व दूसरा हारा है मगर हमारे लिए यह सबक है,सीखने का अवसर है जिसको समझते हुए हम मिलकर अपना एजेंडा सेट कर सकते है व आगे बढ़ सकते है!मनोरंजन करिये मगर इतने भी उतावले पड़कर मत उछलिये की जड़ों को ही काट बैठें!



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